Thursday, November 30, 2017

मुझे बातें करनी नहीं आती!

मैं बातूनी बहुत हूँ मगर,
मुझे बात करनी नहीं आती!
यूहीं, बेतकल्लुफ़ी में सुबह से शाम-
शाम से रात करनी नहीं आतीं।
मैं बातूनी हूँ पर,
मुझे बात करनी नहीं आती!

झील के किनारे बैठ कर ख़ुद ही से बोल सकता हूँ मैं।
रात भर पंखे को ताक कर,
हज़ार ख़यालों के पालने में झूल सकता हूँ मैं।
पर कंठ से चढ़कर कर आवाज़ मेरे हलख पर रुक जाती है,
होंठ सूख जाते हैं जब नौबत बात करने की आती है।
ऐसी फाँस लग जाती है, कि सुई से भी नहीं निकलती,
इरादतन तो छोड़िए, अब तो ग़लती से भी ये कमबख़्त ज़ुबान नहीं फिसलती!
ये ऐसी विडम्बना है कि चाह कर भी बयान नहीं कर सकता हूँ मैं,
घूँट भी ऐसा फँस जाता है की ना उगल पाता और ना निगल सकता हूँ मैं।

वो वक़्त और था जब महफ़िलें 'मेरी' होती थी,
अब तो मैं 'उन' महफ़िलों में होता हूँ।
तब मख़मल का तख़्त था मेरा जहाँ से बात किया करता था मैं,
अब तो बस अपने सपनों के क़िले में सोता हूँ।
और ये नामाकूल सपने भी अब तबसे शुरू होते हैं,
जब महफ़िल सारी सिमट जाती है, और-
जो अभी तक भरी थीं ठसा-ठस,
वो कुर्सियाँ ख़ाली हो जाती हैं।
तितर बितर बैठी-लेटी वो ताकती हैं मुझको,
और कुछ तो मुझसे नाराज़ होकर मुझसे,
मुँह तक फेर लेती हैं।
एक सन्नाटा सा पसर जाता है,
ख़ामोश हवा माहौल में बाँहें पसार लेती है।
तब शुरू होता है वक़्त मेरा,
रंग जमा देता हूँ,
पर मौक़ा जब लोगों से कहने का आता है,
तो ख़ुदमें ख़ुद ही को छुपा लेता हूँ।

उन रूठी हुई कुर्सियों को मना सकता हूँ मैं,
ख़ाली संकरी गलियों में मेले लगा सकता हूँ मैं।
उस पुराने पड़े रेडीओ का अमीन सैयानी बन सकता हूँ मैं,
हर फ़िल्म के हीरो का संवाद हो सकता हूँ मैं,
पर मुझे पकड़ना मत अकेले में वरना ये भी छूट जाएगा,
बात करने का सपना मेरा हमेशा के लिए टूट जाएगा।

मेरी आखों में अंबार लगा है मेरे जज़्बातों का,
मेरा चेहरा गवाह है मेरे हालातों का,
उनको तुमसे साझा करके,
बाँट कैसे सकता हूँ मैं?
जो चल रहा है बहुत अंदर मुझमें कहीं उसे,
महज़ शब्दों में बयान कैसे कर सकता हूँ मैं?
और तुम भी मत समझ लेना की ये चुप्पी अहंकार है मेरा,
चाहे मैं करूँ या ना करूँ,
तुम ज़रा देर, मुझसे बात ज़रूर कर लेना।
समझा सकता तो मसला ये इतना पेचीदा होता ही नहीं,
शुरू हो सकता अगर तो बातों का सिलसिला तो ख़त्म होता है नहीं।

सोचता हूँ हर पल यही कि काश-
क़िस्से और कहानियाँ कहते सारी उम्र बीत जाती,
गुज़ारिश मेरे कुछ कहने की नहीं मेरे चुप हो जाने की करी जाती,
पर मेरा सपना सुनहरी क़ालीन है और,
मेरा यथार्थ है जंग लगी वो लोहे की टपकती बरसाती,
जिसकी हर दरार से टपकती बूँद यहीं कहती है टप्प से गिरके कि-
मैं बातूनी बहुत हूँ मगर,
मुझे बात करनी नहीं आती!
यूहीं, बेतकल्लुफ़ी में सुबह से शाम-
शाम से रात करनी नहीं आतीं।
मैं बातूनी बहुत हूँ पर,
मुझे बात करनी नहीं आती!

आओ मिलने कभी मुझसे,
मैं उन दराजों में मिलता हूँ,
स्याही के रंग में कभी तो-
कभी वक़्त के इरादों में मिलता हूँ।
पीले पड़ गए हैं पन्ने जो सालों से इंतेज़ार में तुम्हारे,
उनके हर धुँधले अक्षर के पुख़्ता वादों में मिलता हूँ।
पर उम्मीद ना रखना की बोल सकेगा संकल्प दो शब्द भी तुमसे-
अरे ओ मेरे साथी,
हो गया अरसा अब बोले-बतलाए,
अब आवाज़ ना जाने क्यों निकल नहीं पाती!

लेकिन सुनो,
घबराओ मत, तसल्ली रखो-
आवाज़ दुरुस्त है मेरी,
बस समझ लो तुम ख़ामोशी मेरी,
क्योंकि अब आलम ऐसा है कि-
गला रुँधा जाता है- साँस अटक है जाती,
ज़ुबान अकड़ जाती है और आँख है मेरी भर आती,
जब होता है एहसास की,
मैं बातूनी बहुत हूँ मगर,
मुझे बात करनी नहीं आती!
यूहीं, बेतकल्लुफ़ी में सुबह से शाम-
शाम से रात करनी नहीं आतीं।
मैं बातूनी हूँ पर,
मुझे बात करनी नहीं आती!

-संकल्प











Thursday, November 16, 2017

रिश्ते


अमावस की रात में,
जब छाया अँधेरा घना हो,
तो देखना आसमान को।
हो सके तो ढूंढ कर तारे-
पूर्णिमा की रातें भर लेना।
उस पतली चारपायी पर लेटकर, खुदसे-
मेरे हिस्से की बातें कर लेना।

यहाँ मैं हूँ, वहाँ तुम हो,
हमारे दरमियाँ इस सड़क में,
जो हो गए गहरे गड्ढे हैं,
हो सके तो उनमें ज़रा मिट्टी तुम जाके भर देना।

आधे रास्ते चलना तुम,
आधा मैं आजाऊँगा,
दिख जाऊँगा मैं,
ना दिखूँ तो आवाज़ दे लेना।
दिख गए तुम मुझको गर पहले,
मेरी चीख़ तुम सुन लेना।

तुम रोना मत, मैं रो लूँगा,
तुम हास देना मेरी बातों पर,
रिश्ता ही तो था, गाँठ ही तो है,
खोलूँ जब दख़ल ना देना।
खुलने देना गाठें सारी, और-
धागा जब हो सीधा-सुलझा,
तो तोड़ना मत- बस इतना कर लेना।

-संकल्प





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Sunday, November 12, 2017

कुछ बातें करनी थी तुमसे,
जो मैं ज़रूर करता अगर,
मौक़ापरस्त ना होती तुम।
पर फिर भी मैं पूछूँगा तुमसे,
पूछूँगा! क्योंकि वो सारी बातें जो कभी तुमने करी थी मुझसे,
वो आज सवाल हैं मेरे,
उनका जवाब हो तुम!

मौक़ा मिले तो बताना मुझे,
और बता पाना तो बताना मुझे,
कि जिन आँसुओं को कभी यूहीं चूम लिया करता था मैं,
वो भी यूहीं पोंछ देता है क्या?
या फिर सूख कर आखों की सफ़ेदी में रम गए तुम्हारी, वो आँसू?

मौक़ा मिले तो बताना मुझे,
और बता पाना तो बताना मुझे,
कि जिस मुस्कुराहट के लिए यूहीं दौड़ आया करता था मैं,
वो भी आया करता है क्या?
या फिर तुम्हारी ख़ामोशी की गूँज में छिटक कर यूहीं बिखर गयी तुम्हारी, वो मुस्कुराहट?

मौक़ा मिले तो बताना मुझे,
और बता पाना तो बताना मुझे,
कि तुम्हारे नाराज़ होने पर जैसे तुम्हें मनाया करता था मैं,
वो भी मनाता है क्या?
या फिर तुम्हारे मिज़ाज की गरमी में पसीना बन कर बह गयी तुम्हारी, वो नराज़गी?

मौक़ा मिले तो बताना मुझे।
और बता पाना तो बताना मुझे,
कि तुम्हारे दर्द में छटपटाने पर जैसे कराहा करता था मैं,
वो भी वैसे ही कराहता है क्या?
या फिर तुम्हारी ज़िंदगी के आक्रोश में एक पुकार की तरह दब गयी तुम्हारी, वो छटपटाहट?

मौक़ा मिले तो बताना मुझे।
और बता पाना तो बताना मुझे,
कि तुम्हारे भूखे होने पर जैसे तुम्हें निवाले खिलाया करता था मैं,
वो भी वैसे ही खिलाता है क्या?
या फिर तुम्हारी ज़िंदगी के स्वाद में एक खुराक बन कर रह गयी है तुम्हारी, वो भूख?

ये कुछ बातें करनी थी तुमसे,
जो मैं ज़रूर करता अगर,
मौक़ापरस्त ना होती तुम।
पर फिर भी मैं पूछूँगा तुमसे,
पूछूँगा! क्योंकि वो सारी बातें जो कभी तुमने मुझसे करी थी,
वो आज सवाल हैं मेरे,
उनका जवाब हो तुम!

-संकल्प