Friday, August 26, 2016

ज़िन्दगी की, ज़िन्दगी से, ज़िन्दगी के लिए....जद्दोजहद

जद्दोजहद। ज़िन्दगी का एक ऐसा अभिन्न सच जिससे इंसान लड़कर, डटकर, डांटकर, डपटकर, प्यार से, ऐतराम से और ऐतबार से या तो पार लग जाता है, या इसमें लिप्त होकर, विचलित होकर, घुट कर, कुढ़, चिढ़ कर, दुबक कर और सिमट कर हार मान लेता है. आखिर है क्या ये जद्दोजहद? क्यों ऐसी निष्ठुर है ये? आखिर इसे क्यों अपनाए हम? क्यों इससे जीतने, इसे हराने या इससे हार मान जाएँ हम? आखिर क्यों, क्यों इसको अपनी ज़िन्दगी का हिस्सा बनाये हम? बड़ी बदतमीज़ है ये... कितना भी रोको, कितना भी भागो...ज़िन्दगियों में घुस ही जाती है ये. इसे पीड़ा कहें, परेशानी कहें, ज़िन्दगी का ढंग कहें या यूँ कह लें कि इसी का नाम ज़िन्दगी है. पर ये है... और ये तब तक है जब तक हम हैं.  इसलिए जद्दोजहद ज़रूरी और बढ़िया है. बस तय हमे करना है की ये जद्दोजहद हो किसके लिए? किस ख़ुशी के लिए? और ख़ास तौर पर कैसी ख़ुशी के लिए?

पर मुद्दा जद्दोजहद का नहीं है...इसके अभिमान का है या फिर यूँ कहलें उस अहंकार का जो उनमे बस जाता है जो इसके साथ जी जाते हैं और शायद जीत भी .  मुद्दा उस शर्म, नाकामी और लाचार होजाने वाली उन ज़िन्दगियों का है जिन्हें हर पल दो चीजें कुंठित करती हैं- एक वो अहंकारी लोग जिनकी आँखें दम्भ से भरी  हुई हर बार उनकी आखों में देखकर ये बताती हैं की देखो...मैं तो जीत गया...तुम में दम नहीं था कि जीतो सो हर गए...वरना कोई बड़ी बात नहीं थी इस...जद्दोजहद से जीतना. और दूसरी वो हार जो उन्हें हर पल याद दिलाती है, उनके भीतर की कमज़ोरी का.

मैं मुम्बई में रहता हूँ...हिंदुस्तान का वो शहर जहाँ जाने के बाद इंसान ये मान लेता है की वो हिंदुस्तान में तरक्की के सैचुरेशन पॉइंट पे पहुच गया है. इसके आगे आर तरक्की है तो उसे लन्दन या लॉस एंजेलेस ही जाना होगा।  मैं भी कहीं न कहीं शायद ऐसा ही मानता  हूँ.,..हाँ शायद मानता ही हूँ तभी तो कह पा रहा हूँ. पर खैर  छोड़िये... भाड़ में जाए..चूल्हे में जाए ये जद्दोजहद, ये जीत ये हार और ये तरक्की! ऐसा नहीं है की इतने शब्द जो ऊपर मैंने कहे वो सिर्फ एक भूमिका बाँधने कले लिए थे... की आगे पढ़ने में मज़ा आये. ये कोशिश थी उस बात को समझने की जिसे अक्सर दो पेग लगाने के बाद लोग समझने और समझाने कि पुरज़ोर कोशिश करते हैं और फिर सो जाते हैं. सुबह उठते हैं और फिर उसी में लग जाते हैं जिसके लिए वो दिल और दिमाग से खुद को तैयार कर चुके हैं. वो चीज़ है धन. यकीन मानिये...दुनिया इस वक़्त सिर्फ एक ही स्तम्भ पे खड़ी है...धन. बाकी तो बस ऐसे ही है. ये उम्मीद, उसूल, उमंग, उल्लास सब छलावा है. ये सब सिर्फ आज है तो धन की वजह से है वरना इंसान दुखी है...धन नहीं तो उसकी ज़िन्दगी में इन सबकी न कोई जगह है और न वो इनके बारे में सोचने या इनके करीब जाने की कोशिश करता है. और ऐसा मैं पूरी ज़िम्मेदारी के साथ कह सकता हूँ क्योंकि मैं भी इंसान से जन्मा इंसान ही हूँ. लिख ज़रूर रहा हूँ...कह रहा हूँ...महसूस कर रहा हूँ...न शराब पी है और ना अभी सोने का कोई इरादा है...अपनी मन की जद्दोजहद से सामना कर रहा हूँ और और...वो क्या है न..  बाहर वालों के सामने बस इज़्ज़त महसूस होती है...बेइज़्ज़ती महसूस तब होती है जब कोई अपना करे. वरना दुनिया कुछ भी बोले, क्या फर्क पड़ता है. इसलिए लिख रहा हूँ बिना इस उम्मीद के की इससे क्या हासिल होगा या कोई क्रांति आएगी या नहीं या किसी तक पहुच पाउँगा या नहीं. पर अगर मेरे मन की वेदना किसी के दिल तक पहुच सके तो सोचियेगा...न मन करे तो नकार दीजियेगा. आज जब किसी के पास अपनों के लिए वक़्त नहीं है तो एक लेख के लिए वक़्त माँगना ज़्यादती होगी.  कोई नयी बात नहीं कह रहा. ऐसा नहीं है की मर्म सिर्फ मुझमे है और सिर्फ मुझमे ही ज़िंदा है और बाकी सबका मर चुका है. बिलकुल नहीं. कई बार कुछ लोग जिनसे मैं बहुत प्यार हूँ, वो कुछ न कहके भी सब केहदेते हैं. उनकी कला है. मुझे कहना पड़ता है. सो कह रहा हूँ. काम शब्दों में कहना मुश्किल होता है मेरे लिए इसलिए खुलके कह रहा हूँ. मेरी आखों के अलावा सिर्फ मेरे होठ बोल पाते हैं. पर मेरी छोड़िये... आइये हमारी बात करें. हम... मैं, आप, वो, ये, इन सबको मिलाकर बनने वाला हम. हम कैसा समाज बना रहे हैं? एक ऐसा समाज जहाँ लोग रिश्तों और अपनों से ऊबने लगे हैं? जहाँ बातें भारी लगती हैं पर नोटों का वजन चाहे जितना भी हो जाये हल्का महसूस होता है? जहाँ हमे रात को नींद आये या नहीं पर हम कमज़ोर को दबाना या जो हमसे प्यार करे उसे टेकेन फॉर ग्रांटेड लेना नहीं छोड़ सकते? हम है भी? हैं क्या? मैं के अलावा कुछ और है भी? और अगर है तो कहाँ?

मुम्बई में तारदेओ में एंटीलिया नाम की एक २७ माले की इमारत है. वहां अम्बानी परिवार रहता है. उसी के पास थोड़ा आगे जाकर कमाठीपुरा नाम का एक इलाका है. वहां कौन रहता है? नै नै...नाम कैसे लें? वो तो बदनाम सड़क है.  उसका ज़िक्र तो अपने परिवार से भी करने में शर्म आती है जो कभी कभी मुम्बई घूमने आता है. मैं हमेशा उन्हें एंटीलिया दिखाता हूँ. वो सड़क जिसपे ३०० रूपए से लेकर ३०००० रूपए तक में शरीर बिकता है उसका ज़िक्र कभी नहीं करता. पर बताइये...एक घर है जिसका खुदका नाम है...और एक सड़क है जहाँ रोज़ पैदा होने वाले बच्चों और उनके बाप तक का नाम उन बच्चों की माँ को भी नहीं पता. पर  भी...अम्बानियों का स्ट्रगल ये  ज़्यादा अमीर होजाएं. स्ट्रगल उस बेनाम बच्चे , उसकी माँ का भी है... कि  कैसे थोड़ी सी...बस ज़रा सी इज़्ज़त मिल जाये तो सुकून से पूरी ज़िन्दगी ग़ुरबत में भी बिता लें तो ग़म नहीं. ऐसा नहीं है की अमीर की जद्दोजहद  कुछ चोट है. बहुत बड़ा है. काफी ज़िम्मेदारी से करनी  पड़ता है. पर गरीब की जद्दोजहद भी गरीब हो ऐसा ज़रूरी तो नहीं. एक दूसरे के लिए सम्मान कहा है? संवेदनाएं कहाँ हैं? अरे चलिए मानता हूँ की हम एक दूसरे के लिए संवेदनशील हों इतनी फुरसत नहीं है. मेरे पास, आपके पास हमारे लिए वक़्त नहीं है. पर क्या मेरे पास आपके लिए और आपके पास मेरे लिए भी थोड़ा वक़्त नहीं है? मेरे एक बहुत प्यारे दोस्त ऋषभ की पंक्ति ने मुझे बहुत प्रभावित किया था. "प्यार का, प्यार को , प्यार से,  प्यार के लिए" कहते हुए अपनी तमाम पंक्तियों के जज़्बातों को समेट लिया था .  उम्मीद करता हूँ की कभी ज़िन्दगी का, ज़िन्दगी को, ज़िन्दगी से, ज़िन्दगी के लिए भी कुछ दायित्व पूरा होगा।

असल में हम बहुत ही बोर्ड सोसाइटी नौकरी से लेकर रिश्तों तक...हर चीज़ से बोर हो जाने की आदत सी हो गयी है. ऐसा नहीं करते हैं.  न ही खुदसे, और न जिसे हम और हमसे जिसे बहुत प्यार है.  ज़िन्दगी और जीने की तमन्ना बस यूँ ही नहीं कायम रहती. वो हमसे बनती है. आपसे, मुझसे, इनसे और उनसे बनती है. ज़िन्दगी होने का एहसास जद्दोजहद से निपटने को आसान बना देता है.हम को ज़िंदा रखते हैं जिससे कल अगर एक मैं नहीं रहा तो भी आप, वो  और ये मिलकर एक हम बना सकें. खुद को, मर्म को, बातों को, यादों को, संवेदनाओं को, हँसी को, ठहाको को, आसुओं को, झगड़ों को, डाँट को, सिसकी को, आवाज़ को, साथ को और ज़िन्दगी के एहसास को ज़िंदा रहते ज़िंदा रखना बहुत ज़रूरी है.  क्योंकि ज़िन्दगी से तो बोर हो सकते हैं...मौत से कैसे बोर होंगे? हो सकते हैं क्या?